चेतना के द्वारा अपने मूल स्वरूप को पा लेना ही स्वतंत्रता है। अगर हम अपने भीतर छिपी खूबियों को पहचान कर उनका परिमार्जन करें, तो यही होगी खुद को पाने की असली आजादी। स्वतंत्रता दिवस पर प्रस्तुत है चिंतन..
फ्रांस के दार्शनिक रूसो ने बहुत दुख के साथ लिखा था कि 'मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ है, किंतु वह सर्वत्र बंधनों में जकड़ा हुआ है।' रूसो का यह कथन एक प्रकार से फ्रांस की राजक्रांति का नेतृत्व-वाक्य बना और वह 1789 ई. में राजशाही से मुक्त हो गया। इसके बाद से पूरी दुनिया में स्वतंत्रता की एक लहर-सी चलनी शुरू हो गई। भारत तक इस लहर को पहुंचने में लगभग डेढ़ सौ साल लग गए और 1947 में भारत ने अपनी स्वतंत्रता को हासिल कर लिया।
हालांकि ये सब राजनीतिक स्वतंत्रताएं थीं? फिर भी यहां सोचने की बात यह है कि स्वतंत्रता चाहे किसी भी प्रकार की क्यों न हो, उसे इतनी अहमियत क्यों दी जाती है? यदि लोकमान्य तिलक ने कहा कि 'स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा', तो क्या उनका मकसद केवल राजनीतिक स्वतंत्रता तक ही था? तिलक ने जिस 'जन्मसिद्ध अधिकार' की बात कही थी, जाहिर है कि उस स्वतंत्रता का दायरा इतना सीमित नहीं हो सकता। खासकर तब तो और, जब उसको कहने वाला व्यक्ति गंभीर विचारक हो और जिसने गीता के कर्मयोग की व्याख्या की हो।
दरअसल, स्वतंत्रता जीवन जीने की एक प्रणाली ही नहीं है, बल्कि यह अपने आप में जीवन ही है। एक संपूर्ण जीवन। इसका मतलब होता है स्व का तंत्र तथा स्वतंत्रता को पाने का अर्थ हो जाता है- स्वयं को पा लेना। यदि कुछ भी पा लेने की कोशिश में 'स्व' ही खो गया, तो फिर उस पाने का कोई अर्थ नहीं रह जाता, फिर चाहे वह पाना कितना भी बड़ा क्यों न हो। इसी बात को जावेद अख्तर ने अपनी एक कविता में कुछ यूं कहा है, 'ख्वाब में था/ पा लिया। पर खो गई/ वो चीज क्या थी।'
इस बारे में एक रोचक सच्चा किस्सा है। एक समय तलत महमूद गायक बनने मुंबई आए थे। काफी भटकने के बाद संगीतकार अनिल विश्वास ने उन्हें एक गीत गाने का मौका दिया। रिकॉडिंग की तारीख पक्की हो गई। इस बीच तलत साहब जमकर रियाज करते रहे, क्योंकि इसी रिकॉर्डिंग पर उनका गायक बनने का सारा दारोमदार था। रिकॉर्डिंग शुरू हुई। जैसे ही तलत महमूद ने गाना शुरू किया, वैसे ही अनिल विश्वास ने उन्हें रोक दिया। तलत परेशान हो उठे। अनिल ने पूछा कि 'तलत, तुम्हारी आवाज में जो लरजिश थी, आज वह आ नहीं पा रही है। वह कहां चली गई?' तलत ने बड़े उत्साह से बताया, 'जनाब, मैंने अपनी आवाज की लरजिश को खत्म करने के लिए इस बीच बहुत रियाज किया है।' यह सुनकर अनिल विश्वास बोले, 'तलत, जब तुम्हारी आवाज में वही लरजिश फिर से आ जाए, तो आ जाना, तभी रिकॉडिंग कर लेंगे। तुम्हारी आवाज की वह लरजिश ही तो तुम्हारी विशेषता थी।' अपनी विशेषता को पा लेना ही 'स्व' के 'तंत्र' को पा लेना है।
हम सभी के पास दो हाथ-पैर, आंखें, एक पेट तथा एक-एक सिर होने का मतलब यह नहीं होता कि हम सब एक जैसे ही हैं। बनावट के रूप में ऊपरी तौर पर तो यह बात सही हो सकती है, लेकिन आतंरिक तौर पर हम सभी अलग-अलग हैं। प्रकृति ने हम सबको अनोखा बनाया है, अद्भुत बनाया है। ऐसा अलग-अलग बनाया है कि एक के जैसा दूसरा इस पृथ्वी पर कोई नहीं। फिर भला हम क्यों अपनी इस विलक्षणता को भूलकर अपने-आप में स्थित न रहकर दूसरे जैसा होना या बनना चाहते हैं? हम अपने आप में सफल हैं और सुखी भी हैं। लेकिन जैसे ही हम अपनी तुलना दूसरे से, अपने से बड़े से करने लगते हैं, वैसे ही लगने लगता है कि 'हम तो कुछ भी नहीं हैं' और यह सोचकर दुखी हो जाते हैं। इसीलिए हमारे यहां ईश्वर को आनंद कहा गया है- ब्रह्मानंद। जब हम आनंद की स्थिति में रहते हैं, तब हमारे अंदर ईश्वर मौजूद रहता है। अध्यात्म की यह स्थिति स्व में स्थित हुए बिना पाई नहीं जा सकती।
यदि हम अपनी चेतना की थोड़ी भी जांच-पड़ताल करें, तो पाएंगे कि उसकी अपनी मौलिकता तो वहां है ही नहीं। वह बुरी तरह से भ्रष्ट हो गई है। न जाने किन-किन बातों, घटनाओं, परिस्थितियों एवं दृश्यों के प्रभाव ने उसके सच्चे स्वरूप का अपहरण कर लिया है। वह पूरी तरह से परतंत्र हो गई है। इसे ही हमारे ऋषि-मुनियों ने 'माया' कहा है। 'गुलाम चेतना' ही माया है। जैसे ही हमारी यह चेतना दूसरों के प्रभावों से आजाद हो जाती है, वैसे ही वह फिर से ब्रह्म बन जाती है। चेतना के द्वारा अपने मूल स्वरूप को फिर से प्राप्त कर लेना ही 'मुक्ति' है।
मुक्ति की जरूरत केवल आध्यात्मिक क्षेत्र में ही नहीं होती, बल्कि जीवन के व्यवहार में भी होती है। हमारे यहां विद्या का उद्देश्य बताया गया है 'सा विद्या वा विमुक्त'। विद्या वह है, जो विमुक्त करती है। किससे विमुक्ति? उत्तर है, समस्त बाच् प्रभावों से, संकीणर्ताओं तथा दुर्गुणों से विमुक्ति, ताकि व्यक्ति चिंतन के मूल तक पहुंच सके। मुंडकोपनिषद के तीन अर्थयुक्त शब्द है- 'तपसा चीयते ब्रह्म', अर्थात चिंतन की शक्ति से ब्रह्म का विस्तार होता है तथा चेतना की स्वतंत्रता से चिंतन की शक्ति का। भारतीय जीवन-पद्धति में जिस एकांत-साधना की बात कही जाती है, उसका मुख्य उद्देश्य चेतना को स्वतंत्र करना ही होता है, ताकि उसकी रचनात्मक क्षमता जाग्रत होकर कुछ नया रच सके। बड़े-बड़े वैज्ञानिक आविष्कारों का रहस्य चेतना की इसी विमुक्तता में ही निहित है।
हम राजनीतिक रूप से आजाद हो चुके हैं, अब अपनी चेतना, अपने विचारों को आजाद करने का संकल्प लें, ताकि हमारे जीवन की गुणवत्ता और उसका स्वाद ही बदल जाए। एक बार करके तो देखिए।
फ्रांस के दार्शनिक रूसो ने बहुत दुख के साथ लिखा था कि 'मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ है, किंतु वह सर्वत्र बंधनों में जकड़ा हुआ है।' रूसो का यह कथन एक प्रकार से फ्रांस की राजक्रांति का नेतृत्व-वाक्य बना और वह 1789 ई. में राजशाही से मुक्त हो गया। इसके बाद से पूरी दुनिया में स्वतंत्रता की एक लहर-सी चलनी शुरू हो गई। भारत तक इस लहर को पहुंचने में लगभग डेढ़ सौ साल लग गए और 1947 में भारत ने अपनी स्वतंत्रता को हासिल कर लिया।
हालांकि ये सब राजनीतिक स्वतंत्रताएं थीं? फिर भी यहां सोचने की बात यह है कि स्वतंत्रता चाहे किसी भी प्रकार की क्यों न हो, उसे इतनी अहमियत क्यों दी जाती है? यदि लोकमान्य तिलक ने कहा कि 'स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा', तो क्या उनका मकसद केवल राजनीतिक स्वतंत्रता तक ही था? तिलक ने जिस 'जन्मसिद्ध अधिकार' की बात कही थी, जाहिर है कि उस स्वतंत्रता का दायरा इतना सीमित नहीं हो सकता। खासकर तब तो और, जब उसको कहने वाला व्यक्ति गंभीर विचारक हो और जिसने गीता के कर्मयोग की व्याख्या की हो।
दरअसल, स्वतंत्रता जीवन जीने की एक प्रणाली ही नहीं है, बल्कि यह अपने आप में जीवन ही है। एक संपूर्ण जीवन। इसका मतलब होता है स्व का तंत्र तथा स्वतंत्रता को पाने का अर्थ हो जाता है- स्वयं को पा लेना। यदि कुछ भी पा लेने की कोशिश में 'स्व' ही खो गया, तो फिर उस पाने का कोई अर्थ नहीं रह जाता, फिर चाहे वह पाना कितना भी बड़ा क्यों न हो। इसी बात को जावेद अख्तर ने अपनी एक कविता में कुछ यूं कहा है, 'ख्वाब में था/ पा लिया। पर खो गई/ वो चीज क्या थी।'
इस बारे में एक रोचक सच्चा किस्सा है। एक समय तलत महमूद गायक बनने मुंबई आए थे। काफी भटकने के बाद संगीतकार अनिल विश्वास ने उन्हें एक गीत गाने का मौका दिया। रिकॉडिंग की तारीख पक्की हो गई। इस बीच तलत साहब जमकर रियाज करते रहे, क्योंकि इसी रिकॉर्डिंग पर उनका गायक बनने का सारा दारोमदार था। रिकॉर्डिंग शुरू हुई। जैसे ही तलत महमूद ने गाना शुरू किया, वैसे ही अनिल विश्वास ने उन्हें रोक दिया। तलत परेशान हो उठे। अनिल ने पूछा कि 'तलत, तुम्हारी आवाज में जो लरजिश थी, आज वह आ नहीं पा रही है। वह कहां चली गई?' तलत ने बड़े उत्साह से बताया, 'जनाब, मैंने अपनी आवाज की लरजिश को खत्म करने के लिए इस बीच बहुत रियाज किया है।' यह सुनकर अनिल विश्वास बोले, 'तलत, जब तुम्हारी आवाज में वही लरजिश फिर से आ जाए, तो आ जाना, तभी रिकॉडिंग कर लेंगे। तुम्हारी आवाज की वह लरजिश ही तो तुम्हारी विशेषता थी।' अपनी विशेषता को पा लेना ही 'स्व' के 'तंत्र' को पा लेना है।
हम सभी के पास दो हाथ-पैर, आंखें, एक पेट तथा एक-एक सिर होने का मतलब यह नहीं होता कि हम सब एक जैसे ही हैं। बनावट के रूप में ऊपरी तौर पर तो यह बात सही हो सकती है, लेकिन आतंरिक तौर पर हम सभी अलग-अलग हैं। प्रकृति ने हम सबको अनोखा बनाया है, अद्भुत बनाया है। ऐसा अलग-अलग बनाया है कि एक के जैसा दूसरा इस पृथ्वी पर कोई नहीं। फिर भला हम क्यों अपनी इस विलक्षणता को भूलकर अपने-आप में स्थित न रहकर दूसरे जैसा होना या बनना चाहते हैं? हम अपने आप में सफल हैं और सुखी भी हैं। लेकिन जैसे ही हम अपनी तुलना दूसरे से, अपने से बड़े से करने लगते हैं, वैसे ही लगने लगता है कि 'हम तो कुछ भी नहीं हैं' और यह सोचकर दुखी हो जाते हैं। इसीलिए हमारे यहां ईश्वर को आनंद कहा गया है- ब्रह्मानंद। जब हम आनंद की स्थिति में रहते हैं, तब हमारे अंदर ईश्वर मौजूद रहता है। अध्यात्म की यह स्थिति स्व में स्थित हुए बिना पाई नहीं जा सकती।
यदि हम अपनी चेतना की थोड़ी भी जांच-पड़ताल करें, तो पाएंगे कि उसकी अपनी मौलिकता तो वहां है ही नहीं। वह बुरी तरह से भ्रष्ट हो गई है। न जाने किन-किन बातों, घटनाओं, परिस्थितियों एवं दृश्यों के प्रभाव ने उसके सच्चे स्वरूप का अपहरण कर लिया है। वह पूरी तरह से परतंत्र हो गई है। इसे ही हमारे ऋषि-मुनियों ने 'माया' कहा है। 'गुलाम चेतना' ही माया है। जैसे ही हमारी यह चेतना दूसरों के प्रभावों से आजाद हो जाती है, वैसे ही वह फिर से ब्रह्म बन जाती है। चेतना के द्वारा अपने मूल स्वरूप को फिर से प्राप्त कर लेना ही 'मुक्ति' है।
मुक्ति की जरूरत केवल आध्यात्मिक क्षेत्र में ही नहीं होती, बल्कि जीवन के व्यवहार में भी होती है। हमारे यहां विद्या का उद्देश्य बताया गया है 'सा विद्या वा विमुक्त'। विद्या वह है, जो विमुक्त करती है। किससे विमुक्ति? उत्तर है, समस्त बाच् प्रभावों से, संकीणर्ताओं तथा दुर्गुणों से विमुक्ति, ताकि व्यक्ति चिंतन के मूल तक पहुंच सके। मुंडकोपनिषद के तीन अर्थयुक्त शब्द है- 'तपसा चीयते ब्रह्म', अर्थात चिंतन की शक्ति से ब्रह्म का विस्तार होता है तथा चेतना की स्वतंत्रता से चिंतन की शक्ति का। भारतीय जीवन-पद्धति में जिस एकांत-साधना की बात कही जाती है, उसका मुख्य उद्देश्य चेतना को स्वतंत्र करना ही होता है, ताकि उसकी रचनात्मक क्षमता जाग्रत होकर कुछ नया रच सके। बड़े-बड़े वैज्ञानिक आविष्कारों का रहस्य चेतना की इसी विमुक्तता में ही निहित है।
हम राजनीतिक रूप से आजाद हो चुके हैं, अब अपनी चेतना, अपने विचारों को आजाद करने का संकल्प लें, ताकि हमारे जीवन की गुणवत्ता और उसका स्वाद ही बदल जाए। एक बार करके तो देखिए।

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