Sunday, May 31, 2020

सोच ही सफलता का मार्ग है

आज के सांसारिक युग में कदम-कदम पर नई-नई जानकारियां खड़ी हैं। जानकारियां अच्छी-बुरी, व्यवहारिक इत्यादि हो सकती हैं। गुरु ही हमें विश्व की सभी जानकारियों से ओत-प्रोत कर देते हैं। आत्मनिर्भर बना देते हैं। अंतरात्मा में प्रेम का सागर उड़ेल देते हैं। शास्त्रों के अनुसार भूखंड का ईशान कोण गुरु का पर्यायवाची शब्द है। शास्त्र अनुकूल बना हुआ ईशान कोण सकारात्मक ऊर्जाओं को घर में भर देता है। सकारात्मक ऊर्जा में असंभव को संभव बनाने की शक्ति है।
जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि- दृष्टि में अगर सकारात्मक भाव हो, तो भूखंड का चप्पा-चप्पा हमें जन्नत नजर आता है। जीवन में अगर सफल होना है, छोटी सोच वालों के चक्कर में न आएं, न उनसे सलाह लें और न ही संगत लें। जिस तरह दूषित भोजन शरीर को अस्वस्थ बना देता है। उसी तरह छोटे सोच, ओछे विचार वाले मस्तिष्क को अस्वस्थ कर देते हैं, तो छोटी-छोटी बातों से ऊपर उठ जाइए। अपनी दृष्टि को अपने लक्ष्य पर लगाइए लक्ष्य आपसे दूर नहीं रहेगा। आपने देखा होगा कि बारिश और धूप दोनों के मिलने से इंद्रधनुष बनता है। जीवन में खुशियां भी हैं, गम भी है। सुख भी है, दु:ख भी है। अंधेरा भी है, उजाला भी है। हम अपने को कर्मों के अधीन पाते हैं। अगर हम अपनी हालत बदलना चाहते हैं, तो अपनी सोच के नजरिए बदलने होंगे। सोच के नजरिया ही सफलता पाने की कुंजी है। अपनी दृष्टि का विस्तार करें, सृष्टि के अंदर सफलता खोजें। असफल व्यक्ति दो तरह के होते हैं, एक तो वो जो करते हैं, लेकिन सोचते नहीं। दूसरे वो सोचते रहते हैं मगर कुछ करते नहीं। कुम्हार अपने चाक पर मनचाहे बर्तनों को आकार दे देता है। बाजार हाट में कुम्हार की कारीगरी पसंद की जाती है। हम अपनी जिंदगी को अच्छे ढांचे में ढालने का प्रयास करेंगे। सफलता के शिखर पर पहुंचने से पहले सफलता क्या होती है, इसको अपनी सोच से अनुभव करना पड़ेगा। तभी सफलता आपके कदम चूमेगी। हर एक में कुछ न कुछ कमी होती है। जैसा पात्र मिले, उसको स्वीकार कर लेना चाहिए। हमें हर जगह पूर्णता की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। कोई भी मानव पूर्ण नहीं होता। परिस्थितियां सब समय अनुकूल नहीं होती। हमें परिस्थितियों के अनुकूल होने की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। अपनी उलझनों को सुलझाने का प्रयास करना चाहिए। जिस काम से डर लगता हो, उस काम को जरूर करें। काम करने से मन का डर निकल जाएगा। अच्छे समय का इंतजार करके समय बर्बाद न करें। काम में जुट जाइए, समय अपने आप अनुकूल हो जाएगा। विचार मजबूत रखें। विचारों से सफलता नहीं मिलती, सफलता विचारों के द्वारा प्रदान किए गए मार्ग पर चलने से मिलती है। लक्ष्य, सच्ची लगन, कठोर परिश्रम करने वाला असंभव शब्द पसंद नहीं करता। अगर आप अपनी हालत बदलने के लिए कमर कसकर तैयार हैं, तो परमात्मा आपके साथ है।
खुदा ने उस कौम की हालत न बदली,
जिसे न फिक्र हो अपनी हालत बदलने का।
जीवन में जब भी कभी असफलता मिले, न उससे घबड़ाएं, न असफलता का कारण किसी दूसरे को बनाएं। कार्य के बारे में पूरी जानकारी न होना, काम की पूरी तैयारी नहीं करना इत्यादि कारणों के अलावा कार्य करने में उत्साह एवं लगन की कमी भी हार का मुख्य कारण हो सकती है। अपने दिमाग को ठंडा रखने की आदत डालें। प्रतिकूल परिस्थितियों में घबराना या उत्तेजित होकर अपने आप को परेशान न होंने दें। असफलता जिस कारण से मिली, उसकी तलाश करें, समाधान करें। अपने मार्ग पर आगे बढ़ जायें। हार से कभी भी अपने मन में मानसिक व्यथा पैदा न करें। एक विद्वान ने कहा है कि निराशा एक प्रकार की कायरता है, जो आदमी को कमजोर बनाती है। अपनी गलतियों का आत्ममंथन करें एवं फिर प्रयास में जुट जाएं। सकारात्मक सोच को चेतनरूपी मन पर बैठा दिया जाए, तो एक कुशल नाविक की तरह आपकी नौका पार लगा सकता है। आपको सफल होने से कोई नहीं रोक सकता। आपके अंदर अद्भुत शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्तियां भरी हुई हैं। आप अपनी सकारात्मक सोच से उनका विकास कर सकते हैं। अंतरात्मा के विश्वास से, अपने कार्यों से संसार को चकित कर सकते हैं। सफल व्यक्ति कभी भी तर्क नहीं करते। लड़ाई-झगड़ा पसंद नहीं करते। बहस करके अपना समय बर्बाद नहीं करते। अपने सोच का दायरा विशाल बना लेते हैं। अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने का प्रयास करते हैं, तो निश्चित रूप से सफल हो जाते हैं। विजय के मुकुट से माथा शोभित हो जाएगा। 

कुमाऊं का मुख्य पर्यटन स्थल बागेश्वर

बागेश्वर कुमाऊं का एक मुख्य पर्यटन स्थल है। यह नीलेश्वर और भीलेश्वर पर्वत श्रृंखलाओं के बीच सरयू, गोमती व विलुप्त सरस्वती नदी के संगम पर बसा है। पुराने समय से ही बागेश्वर को व्यापारिक मंडी के रूप में जाना जाता है। बागेश्वर में प्रतिवर्ष के बागनाथ मंदिर में ही प्रतिवर्ष विश्वप्रसिध्द उत्तरायणी मेला भी लगता है। प्राचीन समय में दारमा, व्यास, मुनस्यारी के निवासी भोटियों और साथ ही मैदान के व्यापारी भी इस मेले में आते थे। भेटिया जाति के लोग ऊन से बने वस्त्रों और जड़ी-बूटियों को बेचते थे और उसके बदले में अनाज व नमक इत्यादि जरूरत का सामान यहां से ले जाया करते थे। इसी कारण वर्तमान में नुमाइश मैदान कहे जाने वाले स्थान को पहले दारमा पड़ाव व स्वास्थ्य केंद्र वाले स्थान को भोटिया पड़ाव कहा जाता था। बागेश्वर के संगम पर हमेशा ही स्नान पर्व चलते रहता है। अयोध्या में बहने वाली सरयू और बागेश्वर की सरयू नदी एक ही मानी जाती है। सरमूल से निकलकर बागेश्वर से बहते हुए पिथौरागढ़ तक इसे सरयू उसके आगे टनकपुर तक इसे रामगंगा तथा टनकपुर से आगे इसे शारदा नाम से जाना जाता है। अयोध्या में इसे पुन: सरयू नाम से पुकारा जाता है। बागेश्वर का जिक्र स्कन्द पुराण के मानस खंड में भी किया गया है। इसके अनुसार बागेश्वर की उत्पत्ति आठवीं सदी के आस-पास की मानी जाती है। यहां के बागनाथ मंदिर की स्थापना को तेरहवीं शताब्दी का बताया जाता है। 1955 तक बागेश्वर ग्राम सभा में आता था। 1955 में इसे टाउन एरिया माना गया। सन् 62 में इसे नोटिफाइड ऐरिया व 1968 में नगरपालिका के रूप में पहचान मिली। 1997 में इसे जनपद बना दिया गया। स्वतंत्रता संग्राम में भी बागेश्वर का महत्वपूर्ण स्थान है। कुली बेगार आंदोलन की शुरुआत बागेश्वर से ही हुई थी। बागेश्वर अपने विभिन्न ग्लेशियरों के लिए भी विश्व में अलग स्थान रखता है। इन ग्लेशियरों के नाम है - सुंदरढु्रगा, कफनी और पिंडारी ग्लेशियर।

बर्फ की चादर में लिपटी सोलंग

मस्त हवा के झोंके, पंछियों का कलरव और दूर कहीं झरने का कोलाहल समूचे परिवेश को जादुई बना देता है। गर्मियों में भी यहां सैलानियों की खूब भीड रहती है और लाहौल घाटी जाने वाले सैलानी यहां जरूर पड़ाव डालते हैं

हिमाचल प्रदेश की मनाली घाटी में स्थित सोलंग नाला एक ऐसा स्थल है जो सैलानियों, साहसिक पर्यटन के शौकीनों, रोमांचक क्रीड़ा प्रेमियों और फिल्मी हस्तियों को बार-बार यहां आने का न्योता देता दिखता है। हर मौसम में सोलंग का मिजाज देखते ही बनता है। गर्मियों में जहां सोलंग में बिछी हरियाली सहसा ही मन मोह लेती है, वहीं सर्दियों में यहां पहुंचकर ऐसा लगता है जैसे बर्फ के साम्राय में आ गए हों। सोलंग नाले के इर्द-गिर्द बसी है सोलंग घाटी। यह नाला ब्यास नदी का मुख्य स्त्रोत माना जाता है। नाले के शीर्ष पर ब्यास कुंड स्थित है। कुल्लू-मनाली घाटियों के ढलानें और उफनती नदियां वैसे भी रोमांच प्रेमियों के लिए स्वर्ग से कम नहीं हैं। लेकिन सोलंग घाटी ने सर्वाधिक ख्याति अर्जित करके देश-विदेश के पर्यटन मानचित्र पर अपना नाम अंकित करवाया है। गर्मियों में जहां सोलंग में आकाश में उड़ने के साहसिक खेलों का आयोजन होता है, वहीं सर्दियों में यहां की बर्फानी ढलानों पर फिसलता रोमांच देखते ही बनता है।

साहसिक खेलों का आयोजन
हिमाचल प्रदेश में कई ऐसे स्थल हैं जहां विभिन्न साहसिक खेलों का आयोजन किया जाता है, लेकिन सोलंग एकमात्र ऐसा स्थल है जहां आकाश में उड़ने के रोमांचक खेलों से लेकर हिमानी क्रीड़ाओं तक का आयोजन होता है। यहां कई बार राष्ट्रीय शीतकालीन खेल आयोजित हो चुके हैं। यहां की ढलानें स्कीइंग के लिए दुनिया की बेहतरीन प्राकृतिक ढलानों में शुमार की जाती हैं। मनाली स्थित पर्वतारोहण संस्थान तो 1961 से यहां स्कीइंग का प्रशिक्षण दे रहा है और यहां के कई युवक-युवतियों ने इस संस्थान से स्कीइंग का प्रशिक्षण हासिल करने के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत का नाम रोशन किया है।

प्रकृति की मनोरम छटा
हिमाचल प्रदेश के खूबसूरत मनाली नगर से सोलंग की दूरी महज 13 किलोमीटर है। समुद्र तल से 2480 मीटर की उंचाई पर स्थित सोलंग में प्रकृति की अनुपम छटा देखते ही बनती है। रई, तोच्च और खनोर के फरफराते पेड़ वातावरण में संगीत घोलते प्रतीत होते हैं। पृष्ठभूमि में चांदी से चमकते खूबसूरत पहाड़ हैं, जिनका सौंदर्य शाम की लालिमा में और भी निखर जाता है। मनाली से सोलंग टैक्सी, कार या दुपहिया वाहन द्वारा भी पहुंचा जा सकता है और सोलंग के सौंदर्य को आत्मसात करके शाम को आप बडे अाराम से मनाली पहुंच सकते हैं। रुकना चाहें तो यहां कुछ रिजॉर्ट भी हैं। सर्दियों में जब यहां की पर्वत श्रृंखलाएं बर्फ की सफेद चादर में लिपट जाती हैं तो यहां का नजारा ही बदल जाता है। जिधर निगाह दौड़ाएं, बर्फ ही बर्फ। जमीन पर जमी बर्फ, दरख्तों पर लदी बर्फ, नदी-नालों पर तैरती बर्फ और पहाड़ों के सीने से लिपटी बर्फ- बड़ा अदभुत और मोहक दृश्य होता है। सोलंग घाटी जब बर्फ से श्रृंगार करती है तो इसका नैसर्गिक रूप देखते ही बनता है और इसी रूप के मोहपाश में बंध कर सैलानी यहां से जाने का नाम नहीं लेते। गर्मियों में तो सोलंग का रूप ही बदला होता है, सर्दियों से एकदम अलग। सोलंग में बिछी हरियाली सहसा ही मन मोह लेती है। दूर-दूर तक हरियावल जंगल, पेड़-पौधे और वनस्पति धरती पर हरा गलीचा बिछा होने का भ्रम पैदा करती है।

फूलों की बिछी चादरघाटी में जब रंग-बिरंगे फूल खिलते हैं तो एक मादक सुगंध चहुं ओर बिखर जाती है। प्रकृति कितने रूप बदलती है, यह सोलंग आकर पता चलता है। मस्त हवा के झोंके, पंछियों का कलरव और दूर कहीं झरने का कोलाहल समूचे परिवेश को जादुई बना देता है। गर्मियों में भी यहां सैलानियों की खूब भीड रहती है और लाहौल घाटी जाने वाले सैलानी यहां जरूर पड़ाव डालते हैं। सिर्फ सैलानी ही नहीं, फिल्मी दुनिया के लोग भी सोलंग के सम्मोहन में बंधे हैं और शूटिंग के लिए उन्होंने सोलंग को कश्मीर का पर्याय माना है। कई चर्चित फिल्मों की शूटिंग सोलंग की खूबसूरत वादियों में हो चुकी है। स्थानीय निवासियों के लिए सोलंग फिल्म नगरी' बनता जा रहा है।

विवेकानंद का चिंतन: हम क्षुद्र नहीं

जो व्यक्ति स्वयं को अविनाशी और अनंत आत्मा के रूप में देखने लगता है, उसे दुख नहीं घेरते। स्वामी विवेकानंद का चिंतन..


जो कोई यह सोचता है कि मैं क्षुद्र हूं, वह भूल कर रहा है। क्योंकि सत्ता केवल एक आत्मा की ही है। सूर्य का अस्तित्व इसलिए है, क्योंकि हम कहते हैं कि सूर्य है। जब मैं उद्घोषित करता हूं कि दुनिया विद्यमान है, तभी उसे अस्तित्व प्राप्त होता है। मेरे बिना वे नहीं रह सकते, क्योंकि मैं सत, चित और आनंद स्वरूप हूं। मैं सदा सुखी हूं, मैं सदा पवित्र हूं, मैं सदा सुहावना हूं। देखो, सूर्य के कारण ही प्राणिमात्र देख सकते हैं, किंतु किसी की भी आंख के दोष का उस पर कोई परिणाम नहीं होता। मैं भी इसी तरह हूं। शरीर की सब इंद्रियों द्वारा मैं काम करता हूं, किंतु काम के भले-बुरे गुण का परिणाम मुझ पर नहीं होता। मेरा कोई नियामक नहीं है और न कोई कर्म। मैं ही कर्मो का नियामक हूं। मैं तो सदा वर्तमान था और अभी भी हूं। मेरा सच्चा सुख भौतिक वस्तुओं में कभी न था। सुख और दुख, अच्छा और बुरा मेरी आत्मा को एक क्षण के लिए भले ही ढक ले, पर फिर भी वहां मेरा अस्तित्व है ही। वे इसलिए निकल जाते हैं, क्योंकि वे बदलने वाले हैं। मैं रह जाता हूं, क्योंकि मैं विकारहीन हूं। अगर दुख आता है, तो मैं जानता हूं कि वह मर्यादित है। बुराई आती है, तो मैं जानता हूं कि वह चली जाएगी। मैं अनंत, शाश्वत और अपरिणामी आत्मा हूं। आओ, इस प्याली का पेय पिएं, जो विकारहीन वस्तु की ओर हमें ले जाती है। ऐसा मत सोचो कि हममें बुराई है, हम साधारण हैं या हम कभी भी मर सकते हैं। यह सच नहीं है।

खुद को पाने की आजादी

चेतना के द्वारा अपने मूल स्वरूप को पा लेना ही स्वतंत्रता है। अगर हम अपने भीतर छिपी खूबियों को पहचान कर उनका परिमार्जन करें, तो यही होगी खुद को पाने की असली आजादी। स्वतंत्रता दिवस पर प्रस्तुत है चिंतन..
फ्रांस के दार्शनिक रूसो ने बहुत दुख के साथ लिखा था कि 'मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ है, किंतु वह सर्वत्र बंधनों में जकड़ा हुआ है।' रूसो का यह कथन एक प्रकार से फ्रांस की राजक्रांति का नेतृत्व-वाक्य बना और वह 1789 ई. में राजशाही से मुक्त हो गया। इसके बाद से पूरी दुनिया में स्वतंत्रता की एक लहर-सी चलनी शुरू हो गई। भारत तक इस लहर को पहुंचने में लगभग डेढ़ सौ साल लग गए और 1947 में भारत ने अपनी स्वतंत्रता को हासिल कर लिया।
हालांकि ये सब राजनीतिक स्वतंत्रताएं थीं? फिर भी यहां सोचने की बात यह है कि स्वतंत्रता चाहे किसी भी प्रकार की क्यों न हो, उसे इतनी अहमियत क्यों दी जाती है? यदि लोकमान्य तिलक ने कहा कि 'स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा', तो क्या उनका मकसद केवल राजनीतिक स्वतंत्रता तक ही था? तिलक ने जिस 'जन्मसिद्ध अधिकार' की बात कही थी, जाहिर है कि उस स्वतंत्रता का दायरा इतना सीमित नहीं हो सकता। खासकर तब तो और, जब उसको कहने वाला व्यक्ति गंभीर विचारक हो और जिसने गीता के कर्मयोग की व्याख्या की हो।
दरअसल, स्वतंत्रता जीवन जीने की एक प्रणाली ही नहीं है, बल्कि यह अपने आप में जीवन ही है। एक संपूर्ण जीवन। इसका मतलब होता है स्व का तंत्र तथा स्वतंत्रता को पाने का अर्थ हो जाता है- स्वयं को पा लेना। यदि कुछ भी पा लेने की कोशिश में 'स्व' ही खो गया, तो फिर उस पाने का कोई अर्थ नहीं रह जाता, फिर चाहे वह पाना कितना भी बड़ा क्यों न हो। इसी बात को जावेद अख्तर ने अपनी एक कविता में कुछ यूं कहा है, 'ख्वाब में था/ पा लिया। पर खो गई/ वो चीज क्या थी।'

इस बारे में एक रोचक सच्चा किस्सा है। एक समय तलत महमूद गायक बनने मुंबई आए थे। काफी भटकने के बाद संगीतकार अनिल विश्वास ने उन्हें एक गीत गाने का मौका दिया। रिकॉडिंग की तारीख पक्की हो गई। इस बीच तलत साहब जमकर रियाज करते रहे, क्योंकि इसी रिकॉर्डिंग पर उनका गायक बनने का सारा दारोमदार था। रिकॉर्डिंग शुरू हुई। जैसे ही तलत महमूद ने गाना शुरू किया, वैसे ही अनिल विश्वास ने उन्हें रोक दिया। तलत परेशान हो उठे। अनिल ने पूछा कि 'तलत, तुम्हारी आवाज में जो लरजिश थी, आज वह आ नहीं पा रही है। वह कहां चली गई?' तलत ने बड़े उत्साह से बताया, 'जनाब, मैंने अपनी आवाज की लरजिश को खत्म करने के लिए इस बीच बहुत रियाज किया है।' यह सुनकर अनिल विश्वास बोले, 'तलत, जब तुम्हारी आवाज में वही लरजिश फिर से आ जाए, तो आ जाना, तभी रिकॉडिंग कर लेंगे। तुम्हारी आवाज की वह लरजिश ही तो तुम्हारी विशेषता थी।' अपनी विशेषता को पा लेना ही 'स्व' के 'तंत्र' को पा लेना है।
हम सभी के पास दो हाथ-पैर, आंखें, एक पेट तथा एक-एक सिर होने का मतलब यह नहीं होता कि हम सब एक जैसे ही हैं। बनावट के रूप में ऊपरी तौर पर तो यह बात सही हो सकती है, लेकिन आतंरिक तौर पर हम सभी अलग-अलग हैं। प्रकृति ने हम सबको अनोखा बनाया है, अद्भुत बनाया है। ऐसा अलग-अलग बनाया है कि एक के जैसा दूसरा इस पृथ्वी पर कोई नहीं। फिर भला हम क्यों अपनी इस विलक्षणता को भूलकर अपने-आप में स्थित न रहकर दूसरे जैसा होना या बनना चाहते हैं? हम अपने आप में सफल हैं और सुखी भी हैं। लेकिन जैसे ही हम अपनी तुलना दूसरे से, अपने से बड़े से करने लगते हैं, वैसे ही लगने लगता है कि 'हम तो कुछ भी नहीं हैं' और यह सोचकर दुखी हो जाते हैं। इसीलिए हमारे यहां ईश्वर को आनंद कहा गया है- ब्रह्मानंद। जब हम आनंद की स्थिति में रहते हैं, तब हमारे अंदर ईश्वर मौजूद रहता है। अध्यात्म की यह स्थिति स्व में स्थित हुए बिना पाई नहीं जा सकती।
यदि हम अपनी चेतना की थोड़ी भी जांच-पड़ताल करें, तो पाएंगे कि उसकी अपनी मौलिकता तो वहां है ही नहीं। वह बुरी तरह से भ्रष्ट हो गई है। न जाने किन-किन बातों, घटनाओं, परिस्थितियों एवं दृश्यों के प्रभाव ने उसके सच्चे स्वरूप का अपहरण कर लिया है। वह पूरी तरह से परतंत्र हो गई है। इसे ही हमारे ऋषि-मुनियों ने 'माया' कहा है। 'गुलाम चेतना' ही माया है। जैसे ही हमारी यह चेतना दूसरों के प्रभावों से आजाद हो जाती है, वैसे ही वह फिर से ब्रह्म बन जाती है। चेतना के द्वारा अपने मूल स्वरूप को फिर से प्राप्त कर लेना ही 'मुक्ति' है।
मुक्ति की जरूरत केवल आध्यात्मिक क्षेत्र में ही नहीं होती, बल्कि जीवन के व्यवहार में भी होती है। हमारे यहां विद्या का उद्देश्य बताया गया है 'सा विद्या वा विमुक्त'। विद्या वह है, जो विमुक्त करती है। किससे विमुक्ति? उत्तर है, समस्त बाच् प्रभावों से, संकीणर्ताओं तथा दुर्गुणों से विमुक्ति, ताकि व्यक्ति चिंतन के मूल तक पहुंच सके। मुंडकोपनिषद के तीन अर्थयुक्त शब्द है- 'तपसा चीयते ब्रह्म', अर्थात चिंतन की शक्ति से ब्रह्म का विस्तार होता है तथा चेतना की स्वतंत्रता से चिंतन की शक्ति का। भारतीय जीवन-पद्धति में जिस एकांत-साधना की बात कही जाती है, उसका मुख्य उद्देश्य चेतना को स्वतंत्र करना ही होता है, ताकि उसकी रचनात्मक क्षमता जाग्रत होकर कुछ नया रच सके। बड़े-बड़े वैज्ञानिक आविष्कारों का रहस्य चेतना की इसी विमुक्तता में ही निहित है।
हम राजनीतिक रूप से आजाद हो चुके हैं, अब अपनी चेतना, अपने विचारों को आजाद करने का संकल्प लें, ताकि हमारे जीवन की गुणवत्ता और उसका स्वाद ही बदल जाए। एक बार करके तो देखिए।

सोच ही सफलता का मार्ग है

आज के सांसारिक युग में कदम-कदम पर नई-नई जानकारियां खड़ी हैं। जानकारियां अच्छी-बुरी, व्यवहारिक इत्यादि हो सकती हैं। गुरु ही हमें विश्व की ...